कॉलेजी दिनों में जब कभी कहीं की ट्रीप का प्लान बनाने का जिक़्र छिड़ता तो साथी हवाई यात्रा का चुनाव करते। अपना मशविरा रहता कि यात्रा रेल के
ज़रिये की जानी चाहिये, उसमें
भी जनरल बोगी से। दरअसल उन दिनों महात्मा गांधी को ख़ूब देखा और पढ़ा करता था।
जानता था कि अफ्रीका से स्वदेश लौटने पर तिलक की सलाह के अनुसार बापू ने
देश के दिल देहातों में दस्तक दी। ज़रिया बना था रेल का तीसरा दर्जा। ऐसा नहीं है कि
गांधीजी का करिश्माई व्यक्तित्व पूरी तरह मेरे ज़ेहन पर तारी रहता था। समझा जा
सकता है कि आवाम की नब्ज़ टटोलने के लिए खुदको उसकी ज़िंदगी के साँचे में ढाल लेना
सबसे कारगर प्रयोग होता है। खैर, किसी भी दूसरे
गर्म ख़ून नौजवान की तरह जेब में पैसों से ज़्यादा दिल-ओ-दिमाग में आदर्श बसते थे, मगर
इन पर अमल करने के मुआमले में पूरी तरह असफल रहा। पहले तो देश के दिल दिल्ली से
बाहर जाना ही कम हो पाया, तो
यह सब जुनूनी क़िस्म के कारनामों को अंजाम देने का मौक़ा हाथ ही नहीं लगा। अब जबकि हाल में दोस्त की शादी के सिलेसिले में बिहार पहुंचा तो ये आँखों देखा-हाल पेश कर रहा हूं।
वापस लौटने के लिए पटना से सम्पूर्ण क्राांति पकड़ी। साथ गए एक अनुभवी साथी ने बतलाया कि सेवाओं के लिहाज़ से नंबर 1 राजधानी के बाद यही ट्रेन आती है। साफ़-सफ़ाई-सुरक्षा और वक़्त से गणतव्य तक पहुंचना सुनिश्चित समझो। अच्छा हुआ कि ये सब बातें उसने स्टेशन के बाहर ही बता दी थी। चूंकि ट्रेन के डिब्बे में दाख़िल होते ही यह सब कहने की गुंजाइश नहीं बची रह गई थी। कई सारे सवाल पनप आएं थे। मसलन ये कि बेतहाशा भीड़ से लबरेज़ ट्रेन की बोगी में आदमी चैन की सांस लें या फिर सुकून के साथ दो पल गुफ़्तगू करें? खड़े होने की जगह तलाशें या आदरणीय सुरेश प्रभु का यशोगान करें ? सोशल मीडिया में प्रभु की कार्य-कुशलता के क़िस्सों को याद करता रहें या प्रचार-प्रसार युग में खुदके बेवकूफ़ बनाए जाने पर आह भरें ? हल्ला है कि भगवान को भक्त वर्षों अराधना करके प्रसन्न करते हैं तब भी उनके दीदार नहीं होते। मनोकामना पूरी करवाने के लिए भी ख़ूब जतन करने पड़ते हैं लेकिन सुरेश प्रभु तो आम आदमी के सच्चे हीरो हैं, उन्हें जब चाहें तब ट्वीट करके पुकारो और फ़ौरन जवाब पाओ। मिसालें दी गईं कि प्रभु ने इसके ट्वीट पर इस तरह कार्रवाई की, उसके ट्वीट पर यूं मदद की, प्रभु जी ये प्रभु जी वो। अरे बस कीजिए प्रभु-प्रभु जपना। रेलवे की बुनियादी व्यवस्था ही बद से बदतर है। टिकट लेने वाले यात्रियों को खुद अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। वेटिंग में टिकट लेकर यात्रा कर रहे हैं तो जहन्नुम में जाइये। क़ीमती जान तो वीवीआईपी सम्पर्कों वालों की होती है, कन्फर्म वाले भी देश के नागरिक हैं लेकिन ये स्साला वेटिंग वाले कौन होते हैं ? अच्छा इनके सीने में भी दिल धड़कता है ? इन्हें भी लेटने की ना सही, बैठने की भी नहीं, पर खड़े होने की ठीक-ठाक जगह की दरकार रहती है क्या ? माफ़ कीजिएगा लेकिन ये बताइये कि क्या इन्हें भी घर-दफ़्तर ज़िंदा लौटने का मन होता है ? क्या टीटीई महोदय इनके लिए कुछ नहीं करते ? ओह, वे तो खुद मुसीबत के मारे हैं। अपनी सीट बेचकर पेन्ट्री वालों की बोगी में लेट जाते हैं बेचारे। अरे क्या गज़ब कहते हो बाबा.. तो फिर ये पेन्ट्री वाले कहां जाते हैं जो दिनभर यात्रियों के खाने-पीने की ज़िम्मेदारी पूरी करके रात तक थकान के मारे टूट से जाते हैं.. ? जी लगता है आपने सुना नहीं है कि फर्श पर ग़रीब आदमी को सुकून की नींद आती है.. जहां खाने-पीने का सामान रखते हैं, वहीं सो जाते हैं सबके-सब।
अपनी याद में चलने वाली इस ट्रेन की दुर्गति देखकर तो जेपी तक की आत्मा भी सिहर जाती।अच्छी बात यह है कि तसल्लीबख़्श तरीके से वो पूरी ट्रेन के सूरत-ए-हाल का मुआयना नहीं कर सकते। जहां खड़े होने की जगह मयस्सर नहीं है, वहां पूरी ट्रेन का जायज़ा कोई क्या खाक़ लेगा। धकिया दिये जाएंगे बेमतलब। वैसे भी वे सज्जन पुरुष हैं, टीटीई तो नहीं जो देर रात फर्श पर पड़े इंसानों के ऊपर से चढ़कर जाएंगे। ले-देकर शौचालय के बाहर खड़े रहने का इंतज़ाम किया जा सकता है। उसमें भी कई जगह संडास प्रेमी यात्री कब्ज़ा जमा लेते हैं। शुक्र मनाइये टीटीई साहब का, शौचालय को सीट बनाकर जो बेचा नहीं वरना सामान बेचने के खेल में कोई तोड़ नहीं साहब। जितनी सीटें जुगाड़ से बेच सकते थे बेच दी। बची-खुची फलाना चिलाना बाबू को सप्रेम भेंट कर दी गईं।
व्यवस्था को लेकर निराशा ज़ाहिर करने पर कमोबेश हर एक टीटीई की प्रतिक्रिया मिलती-जुलती होती थी। अमूमन कहते कि अब नाक-भौं क्या सिकोड़ते हो जी ? पहले तो टिकट कन्फर्म करवाए बग़ैर आना ही नहीं था। आने की वजहों को आग लगा देनी थी, अब आ ही गए हैं तो सामान के साथ-साथ अपनी सुरक्षा भी कर लिओ। खून्नस क़ाबू में नहीं आ रही तो जा कर ट्वीट कर दो प्यारे रेल मंत्री को। कुतूब मिनार के माफ़िक खड़े नेटवर्क सिग्नल के बूते बेशक़ ट्वीट प्रेमी रेल मंत्री को शिकायत की जा सकती थी, इत्ता हासिल तो सरकार का रहा ही है कि एकदम्मै बिहड़ इलाक़ों में मोबाइल सेवा दुरूस्त रहे। जबकि शहर तक मुकम्मल मोबाइल सेवाओं से महरूम हैं।उल्लू कहीं के। चलो रक्खो मोबाइल जेब में। रक्खो। बेवज़ह नेटवर्क की जगह पर क्रॉस साइन देखकर जी और ज़्यादा ख़राब होता रहेगा। तो कमोबेश इन्हीं नारकीय हालातों का सामना करते हुए यारों की टोली दिल्ली पहंची। पहुंचना 8 बजे था लेकिन तकनीकी गड़बड़ के चलते सम्पूर्ण क्रांति साहिबाबाद स्टेशन तक पहुंचकर ही अधूरी रह गई। इस जबर ट्रेन से निजात पाने की अकुलाहट इस क़दर थी कि सामने खड़ी लोकल की मदद लेनी पड़ी। तो साहेबान इसे कहते हैं सुनी सुनाई बातों की जगह अपना अनुभव खुद बनाना। भारतीय रेल अपने बुलेट युग में भी आपको ख़स्ताहाल ट्रेनों के दर्द को महसूस करवा रही है... जिसके लिए प्रभु जी यक़ीनन बधाई के हक़दार हैं।
वापस लौटने के लिए पटना से सम्पूर्ण क्राांति पकड़ी। साथ गए एक अनुभवी साथी ने बतलाया कि सेवाओं के लिहाज़ से नंबर 1 राजधानी के बाद यही ट्रेन आती है। साफ़-सफ़ाई-सुरक्षा और वक़्त से गणतव्य तक पहुंचना सुनिश्चित समझो। अच्छा हुआ कि ये सब बातें उसने स्टेशन के बाहर ही बता दी थी। चूंकि ट्रेन के डिब्बे में दाख़िल होते ही यह सब कहने की गुंजाइश नहीं बची रह गई थी। कई सारे सवाल पनप आएं थे। मसलन ये कि बेतहाशा भीड़ से लबरेज़ ट्रेन की बोगी में आदमी चैन की सांस लें या फिर सुकून के साथ दो पल गुफ़्तगू करें? खड़े होने की जगह तलाशें या आदरणीय सुरेश प्रभु का यशोगान करें ? सोशल मीडिया में प्रभु की कार्य-कुशलता के क़िस्सों को याद करता रहें या प्रचार-प्रसार युग में खुदके बेवकूफ़ बनाए जाने पर आह भरें ? हल्ला है कि भगवान को भक्त वर्षों अराधना करके प्रसन्न करते हैं तब भी उनके दीदार नहीं होते। मनोकामना पूरी करवाने के लिए भी ख़ूब जतन करने पड़ते हैं लेकिन सुरेश प्रभु तो आम आदमी के सच्चे हीरो हैं, उन्हें जब चाहें तब ट्वीट करके पुकारो और फ़ौरन जवाब पाओ। मिसालें दी गईं कि प्रभु ने इसके ट्वीट पर इस तरह कार्रवाई की, उसके ट्वीट पर यूं मदद की, प्रभु जी ये प्रभु जी वो। अरे बस कीजिए प्रभु-प्रभु जपना। रेलवे की बुनियादी व्यवस्था ही बद से बदतर है। टिकट लेने वाले यात्रियों को खुद अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। वेटिंग में टिकट लेकर यात्रा कर रहे हैं तो जहन्नुम में जाइये। क़ीमती जान तो वीवीआईपी सम्पर्कों वालों की होती है, कन्फर्म वाले भी देश के नागरिक हैं लेकिन ये स्साला वेटिंग वाले कौन होते हैं ? अच्छा इनके सीने में भी दिल धड़कता है ? इन्हें भी लेटने की ना सही, बैठने की भी नहीं, पर खड़े होने की ठीक-ठाक जगह की दरकार रहती है क्या ? माफ़ कीजिएगा लेकिन ये बताइये कि क्या इन्हें भी घर-दफ़्तर ज़िंदा लौटने का मन होता है ? क्या टीटीई महोदय इनके लिए कुछ नहीं करते ? ओह, वे तो खुद मुसीबत के मारे हैं। अपनी सीट बेचकर पेन्ट्री वालों की बोगी में लेट जाते हैं बेचारे। अरे क्या गज़ब कहते हो बाबा.. तो फिर ये पेन्ट्री वाले कहां जाते हैं जो दिनभर यात्रियों के खाने-पीने की ज़िम्मेदारी पूरी करके रात तक थकान के मारे टूट से जाते हैं.. ? जी लगता है आपने सुना नहीं है कि फर्श पर ग़रीब आदमी को सुकून की नींद आती है.. जहां खाने-पीने का सामान रखते हैं, वहीं सो जाते हैं सबके-सब।
अपनी याद में चलने वाली इस ट्रेन की दुर्गति देखकर तो जेपी तक की आत्मा भी सिहर जाती।अच्छी बात यह है कि तसल्लीबख़्श तरीके से वो पूरी ट्रेन के सूरत-ए-हाल का मुआयना नहीं कर सकते। जहां खड़े होने की जगह मयस्सर नहीं है, वहां पूरी ट्रेन का जायज़ा कोई क्या खाक़ लेगा। धकिया दिये जाएंगे बेमतलब। वैसे भी वे सज्जन पुरुष हैं, टीटीई तो नहीं जो देर रात फर्श पर पड़े इंसानों के ऊपर से चढ़कर जाएंगे। ले-देकर शौचालय के बाहर खड़े रहने का इंतज़ाम किया जा सकता है। उसमें भी कई जगह संडास प्रेमी यात्री कब्ज़ा जमा लेते हैं। शुक्र मनाइये टीटीई साहब का, शौचालय को सीट बनाकर जो बेचा नहीं वरना सामान बेचने के खेल में कोई तोड़ नहीं साहब। जितनी सीटें जुगाड़ से बेच सकते थे बेच दी। बची-खुची फलाना चिलाना बाबू को सप्रेम भेंट कर दी गईं।
व्यवस्था को लेकर निराशा ज़ाहिर करने पर कमोबेश हर एक टीटीई की प्रतिक्रिया मिलती-जुलती होती थी। अमूमन कहते कि अब नाक-भौं क्या सिकोड़ते हो जी ? पहले तो टिकट कन्फर्म करवाए बग़ैर आना ही नहीं था। आने की वजहों को आग लगा देनी थी, अब आ ही गए हैं तो सामान के साथ-साथ अपनी सुरक्षा भी कर लिओ। खून्नस क़ाबू में नहीं आ रही तो जा कर ट्वीट कर दो प्यारे रेल मंत्री को। कुतूब मिनार के माफ़िक खड़े नेटवर्क सिग्नल के बूते बेशक़ ट्वीट प्रेमी रेल मंत्री को शिकायत की जा सकती थी, इत्ता हासिल तो सरकार का रहा ही है कि एकदम्मै बिहड़ इलाक़ों में मोबाइल सेवा दुरूस्त रहे। जबकि शहर तक मुकम्मल मोबाइल सेवाओं से महरूम हैं।उल्लू कहीं के। चलो रक्खो मोबाइल जेब में। रक्खो। बेवज़ह नेटवर्क की जगह पर क्रॉस साइन देखकर जी और ज़्यादा ख़राब होता रहेगा। तो कमोबेश इन्हीं नारकीय हालातों का सामना करते हुए यारों की टोली दिल्ली पहंची। पहुंचना 8 बजे था लेकिन तकनीकी गड़बड़ के चलते सम्पूर्ण क्रांति साहिबाबाद स्टेशन तक पहुंचकर ही अधूरी रह गई। इस जबर ट्रेन से निजात पाने की अकुलाहट इस क़दर थी कि सामने खड़ी लोकल की मदद लेनी पड़ी। तो साहेबान इसे कहते हैं सुनी सुनाई बातों की जगह अपना अनुभव खुद बनाना। भारतीय रेल अपने बुलेट युग में भी आपको ख़स्ताहाल ट्रेनों के दर्द को महसूस करवा रही है... जिसके लिए प्रभु जी यक़ीनन बधाई के हक़दार हैं।