Saturday 14 May 2016

प्रभु के रेल यात्री 'भगवान' भरोसे

कॉलेजी दिनों में जब कभी कहीं की ट्रीप का प्लान बनाने का जिक़्र छिड़ता तो साथी हवाई यात्रा का चुनाव करते। अपना मशविरा रहता कि यात्रा रेल के ज़रिये की जानी चाहिये, उसमें भी जनरल बोगी से। दरअसल उन दिनों महात्मा गांधी को ख़ूब देखा और पढ़ा करता था। जानता था कि अफ्रीका से स्वदेश लौटने पर तिलक की सलाह के अनुसार बापू ने देश के दिल देहातों में दस्तक दी। ज़रिया बना था रेल का तीसरा दर्जा। ऐसा नहीं है कि गांधीजी का करिश्माई व्यक्तित्व पूरी तरह मेरे ज़ेहन पर तारी रहता था। समझा जा सकता है कि आवाम की नब्ज़ टटोलने के लिए खुदको उसकी ज़िंदगी के साँचे में ढाल लेना सबसे कारगर प्रयोग होता है। खैर, किसी भी दूसरे गर्म ख़ून नौजवान की तरह जेब में पैसों से ज़्यादा दिल-ओ-दिमाग में आदर्श बसते थे, मगर इन पर अमल करने के मुआमले में पूरी तरह असफल रहा। पहले तो देश के दिल दिल्ली से बाहर जाना ही कम हो पाया, तो यह सब जुनूनी क़िस्म के कारनामों को अंजाम देने का मौक़ा हाथ ही नहीं लगा। अब जबकि हाल में दोस्त की शादी के सिलेसिले में बिहार पहुंचा तो ये आँखों देखा-हाल पेश कर रहा हूं।

वापस लौटने के लिए पटना से सम्पूर्ण क्राांति पकड़ी। साथ गए एक अनुभवी साथी ने बतलाया कि सेवाओं के लिहाज़ से नंबर
1 राजधानी के बाद यही ट्रेन आती है। साफ़-सफ़ाई-सुरक्षा और वक़्त से गणतव्य तक पहुंचना सुनिश्चित समझो। अच्छा हुआ कि ये सब बातें उसने स्टेशन के बाहर ही बता दी थी। चूंकि ट्रेन के डिब्बे में दाख़िल होते ही यह सब कहने की गुंजाइश नहीं बची रह गई थी। कई सारे सवाल पनप आएं थे। मसलन ये कि बेतहाशा भीड़ से लबरेज़ ट्रेन की बोगी में आदमी चैन की सांस लें या फिर सुकून के साथ दो पल गुफ़्तगू करें? खड़े होने की जगह तलाशें या आदरणीय सुरेश प्रभु का यशोगान करें ? सोशल मीडिया में प्रभु की कार्य-कुशलता के क़िस्सों को याद करता रहें या प्रचार-प्रसार युग में खुदके बेवकूफ़ बनाए जाने पर आह भरें ? हल्ला है कि भगवान को भक्त वर्षों अराधना करके प्रसन्न करते हैं तब भी उनके दीदार नहीं होते। मनोकामना पूरी करवाने के लिए भी ख़ूब जतन करने पड़ते हैं लेकिन सुरेश प्रभु तो आम आदमी के सच्चे हीरो हैं, उन्हें जब चाहें तब ट्वीट करके पुकारो और फ़ौरन जवाब पाओ। मिसालें दी गईं कि प्रभु ने इसके ट्वीट पर इस तरह कार्रवाई की, उसके ट्वीट पर यूं मदद की, प्रभु जी ये प्रभु जी वो। अरे बस कीजिए प्रभु-प्रभु जपना। रेलवे की बुनियादी व्यवस्था ही बद से बदतर है। टिकट लेने वाले यात्रियों को खुद अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। वेटिंग में टिकट लेकर यात्रा कर रहे हैं तो जहन्नुम में जाइये। क़ीमती जान तो वीवीआईपी सम्पर्कों वालों की होती है, कन्फर्म वाले भी देश के नागरिक हैं लेकिन ये स्साला वेटिंग वाले कौन होते हैं ? अच्छा इनके सीने में भी दिल धड़कता है ? इन्हें भी लेटने की ना सही, बैठने की भी नहीं, पर खड़े होने की ठीक-ठाक जगह की दरकार रहती है क्या ? माफ़ कीजिएगा लेकिन ये बताइये कि क्या इन्हें भी घर-दफ़्तर ज़िंदा लौटने का मन होता है ? क्या टीटीई महोदय इनके लिए कुछ नहीं करते ? ओह, वे तो खुद मुसीबत के मारे हैं। अपनी सीट बेचकर पेन्ट्री वालों की बोगी में लेट जाते हैं बेचारे। अरे क्या गज़ब कहते हो बाबा.. तो फिर ये पेन्ट्री वाले कहां जाते हैं जो दिनभर यात्रियों के खाने-पीने की ज़िम्मेदारी पूरी करके रात तक थकान के मारे टूट से जाते हैं.. ? जी लगता है आपने सुना नहीं है कि फर्श पर ग़रीब आदमी को सुकून की नींद आती है.. जहां खाने-पीने का सामान रखते हैं, वहीं सो जाते हैं सबके-सब।


अपनी याद में चलने वाली इस ट्रेन की दुर्गति देखकर तो जेपी तक की आत्मा भी सिहर जाती।
अच्छी बात यह है कि तसल्लीबख़्श तरीके से वो पूरी ट्रेन के सूरत-ए-हाल का मुआयना नहीं कर सकते। जहां खड़े होने की जगह मयस्सर नहीं है, वहां पूरी ट्रेन का जायज़ा कोई क्या खाक़ लेगा। धकिया दिये जाएंगे बेमतलब। वैसे भी वे सज्जन पुरुष हैं, टीटीई तो नहीं जो देर रात फर्श पर पड़े इंसानों के ऊपर से चढ़कर जाएंगे। ले-देकर शौचालय के बाहर खड़े रहने का इंतज़ाम किया जा सकता है। उसमें भी कई जगह संडास प्रेमी यात्री कब्ज़ा जमा लेते हैं। शुक्र मनाइये टीटीई साहब का, शौचालय को सीट बनाकर जो बेचा नहीं वरना सामान बेचने के खेल में कोई तोड़ नहीं साहब। जितनी सीटें जुगाड़ से बेच सकते थे बेच दी। बची-खुची फलाना चिलाना बाबू को सप्रेम भेंट कर दी गईं।


व्यवस्था को लेकर निराशा ज़ाहिर करने पर कमोबेश हर एक टीटीई की प्रतिक्रिया मिलती-जुलती होती थी। अमूमन कहते कि अब नाक-भौं क्या सिकोड़ते हो जी
? पहले तो टिकट कन्फर्म करवाए बग़ैर आना ही नहीं था। आने की वजहों को आग लगा देनी थी, अब आ ही गए हैं तो सामान के साथ-साथ अपनी सुरक्षा भी कर लिओ। खून्नस क़ाबू में नहीं आ रही तो जा कर ट्वीट कर दो प्यारे रेल मंत्री को। कुतूब मिनार के माफ़िक खड़े नेटवर्क सिग्नल के बूते बेशक़ ट्वीट प्रेमी रेल मंत्री को शिकायत की जा सकती थी, इत्ता हासिल तो सरकार का रहा ही है कि एकदम्मै बिहड़ इलाक़ों में मोबाइल सेवा दुरूस्त रहे। जबकि शहर तक मुकम्मल मोबाइल सेवाओं से महरूम हैं।उल्लू कहीं के। चलो रक्खो मोबाइल जेब में। रक्खो। बेवज़ह नेटवर्क की जगह पर क्रॉस साइन देखकर जी और ज़्यादा ख़राब होता रहेगा। तो कमोबेश इन्हीं नारकीय हालातों का सामना करते हुए यारों की टोली दिल्ली पहंची। पहुंचना 8 बजे था लेकिन तकनीकी गड़बड़ के चलते सम्पूर्ण क्रांति साहिबाबाद स्टेशन तक पहुंचकर ही अधूरी रह गई। इस जबर ट्रेन से निजात पाने की अकुलाहट इस क़दर थी कि सामने खड़ी लोकल की मदद लेनी पड़ी। तो साहेबान इसे कहते हैं सुनी सुनाई बातों की जगह अपना अनुभव खुद बनाना। भारतीय रेल अपने बुलेट युग में भी आपको ख़स्ताहाल ट्रेनों के दर्द को महसूस करवा रही है... जिसके लिए प्रभु जी यक़ीनन बधाई के हक़दार हैं।


Tuesday 9 June 2015

तनु और मनु की शादी में बुद्धिजीवियों की आमद

फिल्मी दुनिया में 'तन्नु वेड्स मनु रिटर्न्स' मोटे तौर पर एक ऐसी ख़ुमारी का नाम है जो दर्शकों के दिलो-दिमाग में लगातार बढ़ती जाती है। ये तीन घंटे से भी कम वक़्त की कहानी बिना शक़ पैसा वसूल कही जा सकती है। 'फैशन के दौर में गारंटी की उम्मीद न करें' जैसी चेतावनियों वाले पोस्टर्स के बीच भरोसे के साथ सिनेमा घर में जा कर देख आने की सलाह दे सकने वाली फिल्म। हालांकि कुछ लोगों को तनु वेड्स मनु रिटर्न्स से बेहिसाब शिकायते हैं। अधिकांश आलोचकों की राय यहां आ कर एकमत हो जाती हैं कि 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स'  कतई नारी सशक्तिकरण की पुरअसर वकालत नहीं करती। बल्कि इस तरह के हमख़्यालों की सोच है कि फिल्म के संवाद से लेकर कहानी का ताना-बाना तक, सब महिलाओं को महज़ वस्तु के रूप में पेश करता है। तहलका पत्रिका में शीबा जी का एक लेख छपा है, जिसका लब्बोलुआप ये है कि तन्नु के किरदार को जिस तरह का खुलापन दिया गया वो अतिवादी किस्म का था। सब उससे बेहाल-परेशान दिखाए गए। जबकि हरियाणा के झज्जर जिले से दिल्ली आई दत्तो अपनी पर्सेनेलिटी के चलते उपेक्षित लगी। साथियों की तमाम दलीलों पर गौर करना इसलिए जरूरी लगा चूंकि बहुतेरे मसलों पर अपनी सोच को इनके साथ खड़ा पाता हूं। सोचा कि कहीं वाकई में मनोरंजन की ख़ुराक में असल और गंभीर मुद्दों को हल्का बनाने वालों की भीड़ में शरीक़ तो नहीं हो चुका हूं ? आख़िर में तमाम वैचारिक समानताओं के बावजूद अपने आप को इस विषय पर अलग छोर पर ही खड़ा हुआ पाया।

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही है कि यह फिल्म किसी भी तरह से किसी विशेष विचारधारा पर आधारित नहीं थी। ना ही इसका नाम महिला सशक्तिकरण के इर्द गिर्द कहानी को पेश करने वाला लगता है। फिल्म पूरी तरह से मनोरंजन प्रधान थी। अभिनय के मुआमले में तनु से लेकर दत्तो, पप्पी भैया, अवस्थी जी, शर्मा जी, हरेक कलाकार की भूमिका क़ाबिले तारीफ़ थी। सवाल है कि फिल्म में मौजूद किरदार हमारी सोच के मुताबिक आदर्शवादी, सिद्धांतवादी कैसे हो सकता हैं ? अवस्थी जी(जिम्मी शेरगिल) एक ठेकेदार के बतौर हमसे मिलते हैं, जिनकी भाषा मर्यादा, गरिमा वग़ैरह की परवाह नहीं करती। वो ये नहीं जानते-समझते कि महिला सशक्तिकरण क्या होता है, पुरूष वर्चस्ववाद क्या बला है और उनका इन बातों से कोई सरोकार भी नहीं। महिलाओं को जूती बराबर मानना तो इनकी फितरत में शुमार है। ठीक हमारे आसपास के किसी आम ठेकेदार या ऐसे ही किसी दूसरे शख़्स की तरह। असल में असली फिल्म तो वही है जो समाज का आईना हो। काल्पनिकता का जितना कम सहारा लिया जाए उतना अच्छा।

तो क्या सभी क्रांतिकारी किस्म की सोच रखने वाले साथी 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' को अलहदा अंदाज़ में पेश करना चाहते हैं ? अपने वक़्त की निहायत क्रांतिकारी और प्रगतिशील मूल्यों से भरीपूरी फिल्म। जिसमें रोज़ा पार्क्स से लेकर कार्ल मार्क्स और महिला नारीवादियों के व्यक्तित्व के किरदार रहें। नाम हो सकता है 'आदर्श वेड्स आदर्शी'। यदि रोज़ाना की रोचक दिमागी कसरत के तहत आलोचना करनी है तो संघी भाई लोगों की तरह विरोध का सरलीकृत रास्ता अपनाया जा सकता था। कह देते कि जिस फिल्म के नाम में ही मनु (मनुस्मृति के संदर्भ में) लगा है, वो क्या खाक़ प्रगतिशील मूल्यों को बढ़ावा देगी ?


तनु वेड्स मनु रिटर्न्स का पोस्टर


नामालूम क्यों ढेर सारे सकारात्मक पहलुओं की मौजूदगी के बावजूद आपको (आलोचकों) महज़ नकारात्मक पक्ष ही नज़र आ रहा है। मसला यह भी है कि आपके सोचने-समझने के नज़रिये पर भी निकाले गए निष्कर्ष की निर्भरता रहती है। नमूने के लिए आपकी आलोचना के चंद मुद्दे। आप कहते हैं कि फिल्म के अंत में लड़की (नायिका) किसी भी दूसरी हिंदी फिल्म की तरह थक हारकर लड़के(नायक) को साज सज्जा से लद कर मनाने पहुंचती है, रोती है, मान जाने की मिन्नतें करती है। मेरा मानना है कि आप पूरा गाना बग़ैर पूर्वग्रह के सुनते तो यक़ीनन इस आरोप से इत्तेफ़ाक नहीं रखते। 'बावली हो गई' वाले इस गीत में कंगना आगे जा कर धमकी भी देती हैं कि कहीं ऐसा ना हो, बाद में तुम भी मेरी तरह रोते रहो और तब मैं वापस नहीं लौटूं। वो नायक के बग़ैर मर जाने की दुहाई नहीं देती। दत्तो को कमज़ोर और उपेक्षित कहने से पहले भी सोचिए। फिल्म को फिर देखिये। फैशनपरस्त तनु पहली बार दत्तो को देखते ही उस पर हंसती है, उसका उपहास उड़ाती है। इस हरकत पर दत्तो का जवाबी संवाद भूल गए ? वो पूरी मजबूती के साथ अपने को बेहतर बताती है। एक ही सांस में सब कह डालना चाहती है कि कैसे वो एक छोटे से गांव के बाहर दिल्ली पढ़ने पहुंची। खेल में कैसे उसने वो मक़ाम हासिल किया जो गांव की दूसरी लड़कियों के लिए ख़्वाब रह जाता है। वो कमा सकती है, अपने बूते जीवन जीने में समर्थ है। तनु ने जो कुछ कहा वो दूषित मानसिकता का परिचायक था जो अपने को बढ़कर और दूसरे को कमतर समझता है।

यक़ीन जानिये, दत्तो अपने आप में मौजूदा समय के हिसाब से बेहद क्रांतिकारी किरदार है। जाट बिरादरी की ये लड़की एथिलीट कोटे से दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लेती है। मौक़े-बेमौक़े पूरे गर्व के साथ अपने इस हासिल का इज़हार भी करने से नहीं चूकती। दिल्ली की आबो-हवा और इश्क़ का स्पर्श उसे अकल्पनीय सीमा तक बगावती बना डालता है। दत्तो, शर्मा जी यानी अपने इश्क़ को गांव में घर ले जाने का साहस ही नहीं दिखाती बल्कि उनके लिए अपने भाई से झगड़ा तक कर लेती है। वो भाई जो इक्कीसवीं सदी के भारत में भी दकियानूसी विचारों की जकड़न में जकड़ा पड़ा है। जिसके अहम् को यही बात ठेस पहुंचाती है कि उसे उसकी बहन किसी बात पर मुंहतोड़ जवाब दे, तो समझना मुश्किल नहीं कि इस बहन का शहर से दुल्हा लेते आना उसे किस क़दर नागवार गुज़रा होगा ? इसी दौरान जब दोनों भाई-बहनों के बीच जबरदस्त तू तू-मैं मैं शुरू होती है। तब दत्तो का सबसे जानदार संवाद आता है कि 'ग़लती नहीं होने पर डरती तो मैं अपने बाप से भी नहीं हूं, तो तुझसे क्या डरूंगी'। उसके बाद दत्तो का दूसरा भाई जातिवाद पर जबरदस्त कटाक्ष करता है। वो अपने बुजूर्ग से सवाल करता है कि क्या हम लोग डायनासोर की प्रजाति से है, जो दूसरी जाति के छोरे से तेरी छोरी ब्याह गई तो लुप्त हो जाएंगे ? हां, इस बीच वो लगातार 'कंजर' शब्द का प्रयोग करता है जिस पर कई साथियों को परेशानी है, जो यक़ीनन जायज भी है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिये कि सोच में अपने परिवार वालों से अलग मालूम पड़ने वाला शख़्स उसी गांव और मानसिकता का है जिसका वो खुद विरोध कर रहा है। हालांकि, इस शब्द के प्रयोग को लेकर कोसना तो पूरे समाज को चाहिए चूंकि यह बीमार मानसिकता गहरे तक पैठ चुकी है। बड़े पैमाने पर तो लोग इस तरह के शब्दों के प्रयोग की पूरी हक़ीकत से बेख़बर हैं। उन्हें मालूम ही नहीं होता कि हब्शी, चिंकी या फिर कंजर कहने का अर्थ क्या है और यह किसे-किस तरह आहत करेगा। मुमकिन है इस शब्द का प्रयोग किरदार की भाषा के चलते जानबूझकर इस्तेमाल किया गया हो, यह भी मुमकिन है कि लिखने वाले ने खुद लिखते समय इस नज़रिये से नहीं सोचा हो जिस पर बाद में बुद्धिजीवी वर्ग ने तवज्जो दिया।

अंगुली उठाने के लिए फिल्म में यह संवाद ही नहीं, दूसरी भी बहुत बातें हैं लेकिन इसमें भी दो राय नहीं कि सकारात्मक पहलुओं की मुक़ाबले में भरमार हैं। 'बदलचलन' शब्द का तमगा तो बॉलीवुड क्या, जैसे वास्तविकता में भी महिलाओं से ही चस्पां था। इधर तनु-मनु को हम ज़रा से बेवफ़ा क्या हुए, आप तो पूरे ही बदचलन हो गए शर्मा जी कहकर इस पुरानी परिपाटी को तोड़ती है। वो बहुत जगहों पर ज़रूरत से ज्यादा काल्पनिक लगने लगती है, ये अहसास भर देती है कि बेहतर है जो मनु ने दत्तो के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया। इस हद तक तनु को बेफिक्र पेश किया गया कि एक पल को लगने लगता है कि बेहतर ही हुआ जो मनु ने अब इसकी परवाह तक नहीं की। लेकिन गौरतलब है कि फिल्म की शुरूआत से ही बीच-बीच में कई जगह तनु को अपने पति की खातिर फिक्र में डूबा भी पाया गया। पागल खाने से छुड़वाने से लेकर मैसेज का इंतेज़ार करने तक, और दत्तो के एंट्री से तो सब साफ़ हो ही गया। शायद उसे एक ऐसा व्यक्तित्व दिया गया जो खुदकी चाहतों को लेकर उलझी थी। देर-सवेर सुलझने लगती है। अंत में उलझनों को सुलझा लेती है। तनु-मनु को पा लेती है और मनु भी तनु को पा लेता है। अब आप कहेंगे कि दत्तो को तो बेचारी बना ही डाला। जी नहीं, मेरा द्ष्टिकोण यह है कि उसने मजबूरी में खूंटे के साथ बंधी बैल बनना कुबूल नहीं किया। साहस के साथ विवाह से अलग हो गई। वरना शर्मा जी ने कब सात फेरे लेने से रोका था ? अच्छा है कि बेमतलब के रिश्ते में फंसने की जगह उसने उससे बाहर निकलना बेहतर समझा। अब सोचिये वो धीरे धीरे सही इन सबसे निकल कर अधिक परिपक्वता के साथ आगे बढ़ेगी। मुमकिन है फिल्म दत्तो की कहानी को आगे बढ़ाने चाहती है इसलिए उसे यहां इस तरह छोड़ दिया गया। अंत में एक जरूरी बात। यह मेरे विचार हैं जिस तरह आलोचना को लेकर या सराहना करने वालों के रहें।

Tuesday 6 January 2015

पीके पर विमर्श का रॉन्ग नंबर ।

अलसुबह दफ़्तर से घर की ओर जा रहा था।गली में भगवा वस्त्र पहने बाबा अचानक से टकरा गए।माथे पर बिना रज़ामन्दी के टीका लगा दिया और शनि का प्रकोप दिखाकर रूपये ऐंठने की कोशिश करने लगे।अपने झोले से सांप निकाल पैसे उस पर छुआने को कहा।मैंने मना किया तो ठग बाबा गुंडागर्दी पर उतारू हो गए।अभी तक कृपा का स्त्रोत सांप भय पैदा करने का ज़रिया बन चुका था।उसे मेरे नज़दीक ला कर वह खुलेआम गुंडागर्दी करने लगे।भला हो नज़दीक खड़े एक जानकार का जिनके शोर मचाने से ठग बाबा की हवा निकल गई और झोले में रखे पैसे वो वापस हाथ में थमाकर फौरन रफ्फूचक्कर हो लिए।यह घटना मेरे लिए इसलिए भी चौंकाने वाली थी क्योंकि कुछ समय पहले एकदम ऐसी ही घटना का सामना कर चुका था।यह अनुभव इसलिए साझा किया क्योंकि हाल में अंतरिक्ष से आए पीके पर ख़ूब बवाल मचा है।पीके से मुलाक़ात के दौरान मुझे भी अपने पर यहीं गुज़री याद आ गई थी।दूसरी दुनिया का यह सिनेमाई किरदार पृथ्वी पर आता है और यहीं से कहानी की शुरूआत होती है।कहानी के शुरूआती कुछ भाग से ही समझा जा सकता है कि इसका उद्देश्य धर्म,आस्था के नाम पर चलने वाले ठगी के विशाल साम्राज्य पर हल्ला बोलना है।पीके रोजमर्रा की ज़िंदगी में चल रही कुछ गतिविधियों पर हमारी ख़ामोशी के बीच शोर मचाता है।पीके सवाल पूछता है कि जिस ऊपर वाले को दुनिया का रचियता कहा जाता है उसे अपने ही बच्चों से जुड़ने के लिए धर्म के ठेकेदारों की ज़रूरत क्यों होगी ? (पीके इन्हें मैनेजर कहता है)

उदाहरण के तौर पर शिरडी के साईं हमेशा अपने फक़ीराना अंदाज़ के लिए पहचाने गए । आज उनके मैनेजरों ने इसी फकीर साईं को शाही ठाट-बाट का प्रतीक बना डाला है।कहा जाता है कि साईं अपने जीवनकाल में भीक्षा से ही खानपान का बंदोबस्त करते थे।यह साईं कैसे हो सकते हैं जो करोड़ों की भेंट लेते हैं,सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं, बेहिसाब धन-दौलत के जाल में फंसकर मुफलिसी के अँधकार में डूबे अपने बच्चों के साथ भेदभाव करते हैं।मसला सिर्फ़ दान का नहीं बल्कि इसके आधार पर बरते जाने वाले दोहरे मापदंड से है।यह रॉन्ग नंबर नहीं तो क्या है जहां उनके भक्तों की सामाजिक,आर्थिक हैसियत साईं के दर्शन के लिए पहला पैमाना होता है।सम्पर्कों और धन दौलत वालों के लिए ख़ास वीवीआईपी सुविधाएं हैं।साधारण आदमी यहीं लम्बी कतारों के मार्फ़त दोयम दर्जे का व्यवहार पाता है।



पीके जितना हमारी तरह दिखता था सोचता उतना ही जुदा था




ज़ाहिर है कि करोड़ों और अरबों का व्यापार कर रहे ठगों को पीके से एतराज़ होना था।एक स्वामी शंकराचार्य स्वरूपानंद का बयान आया और मुख्यधारा का मीडिया फिल्म पर अपने विवेकानुसार बहस छेड़ने के बजाय उनके एजेंडे पर अमल करते हुए बहस का दरबार सजा बैठा।किसी ने पीके के सवालों का जवाब नहीं मांगा।स्वभाविक तौर पर वह इन सभी सवालों के जवाब दे भी नहीं सकते थे।इसलिए,चर्चा के मुख्य विषय वस्तु मुसलमान(ख़ासकार आमिर के चलते) और इस्लाम तक निपटा दिये गए।कितना बेहतरीन रहता अगर पीके के सवालातों के आधार पर भी चर्चा होती।आस्था,धर्म के नाम पर चल रहे गोरखधंधे,भिन्न-भिन्न धर्मों के बीच ग़लतफ़हमियां उत्पन्न कर नफ़रत पैदा करने वाले सोच पर चर्चा होती,हालिया घटनाओं के ज़रिये बाबागीरी में अपराधीकरण के बोल बाले पर भी बात होती । यह सब सवाल सत्ता,धर्म और पूंजी के गठजोड़ ने बेहद गौण कर दिये । फिल्म को हिंदू धर्म के खिलाफ़ षड्यंत्र बताने वालों में अधिकांश ने शायद यह फिल्म देखी तक नहीं । कुछ टिप्पणी करने की रस्म अदायगी पूरी करने के लिए भी सुनी सुनाई और दूसरों की लिखी जा रही बातों के आधार पर अपने विचार व्यक्त करने लगे । जबकि,असलियत ये है कि फिल्म में भारत जैसे विविधितापूर्ण देश के लिहाज़ से सभी धर्मों को शामिल किया गया है।अपनी एक तयशुदा सीमा के कारण किसी पर कम तो किसी पर ज़्यादा व्यंग्य अथवा कटाक्ष किये गए । ऐसा कहते हुए हमें देश की बहुसंख्यक आबादी और उसी के हिसाब से बाज़ार की ज़रूरत को भी समझना होगा ।

अफ़सोस कि फिल्म पर हुए सार्वजनिक विमर्श का संकुचित दायरा कट्टरपंथियों के लिए ध्रुवीकरण का औज़ार बन गया।बिना किसी ठोस आधार फिल्म को इस्लाम बनाम हिंदुत्व का मंच बनाया गया।हालांकि,मुख्यधारा के मीडिया में चल रहे विमर्श से ऐसे सतही विमर्श से ज़्यादा की आशा करना भी बेईमानी है। क्योंकि, उन्हें तो निर्मल बाबा से लेकर रामदेव तक रिश्ते निभाने हैं । अंतत: एक नेक उद्देश्य के लिए बनी फिल्म बाज़ार में रिकॉर्डतोड़ सफ़लता हासिल करने के बावजूद नतीजे के नाम पर सिफर रही।दरअसल,पीके और समाज के बीच होने वाले जनसंचार के सभी माधय्म रॉन्ग नंबर पर लगे थे।असली पीके और उसके सवालों से संवाद न के बराबर हुआ।भारत की सामाजिक बुनावट और मौजूदा दक्षिणपंथी राजनीति के उफ़ान में सबकी नकली पीके से बात करवाई जा रही हैं।तो क्या पीके जैसी फिल्म का बनना ही ग़लत है ? हरगिज़ नहीं,यह एक मिसाल भर है मौजूदा राजनीतिक,सामाजिक और पूंजीवादी मॉडल की ताक़त का । वह जैसे चाहेंगे चीज़ों को अपने अनुकूल बना लेंगे ।

Friday 19 December 2014

गोडसे अंत है और महात्मा गांधी अनंत हैं ।

केंद्र में मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से एक शख़्स को लगातार ललकारा जा रहा है।यह काम खुद सरकार से जुड़े बदज़ुबान सांसद,संगठनों के नेता कर रहे हैं।यह शख़्स कोई और नहीं बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हैं।जिस महात्मा गांधी को कांग्रेस इस क़दर हाशिये पर धकेल चुकी थी कि उनके दिखाए रास्तों पर चलना तो दूर उनकी चर्चा महज़ रस्म अदायगी बन चुकी थी,आज उसी गांधी की सामाजिक,सांस्कृतिक प्रतिबद्धता को खारिज किया जा रहा है।आखिर,एनडीए सरकार के शुरूआती कार्यकाल में साबरमती का ये संत सबसे मजबूत विपक्ष कैसे बनता जा रहा है ? बापू पर बीजेपी सांसद साक्षी महाराज,आरएसएस का केरल से निकलने वाला मुखपत्र,मुंबई में विहिप की महासभा में साध्वी सरस्वती के हमले तो सिर्फ़ एक बानगी भर है।सुनियोजित ढंग से राष्ट्रपिता की छवि को अपनी सहूलियत के अनुकूल नायक,खलनायक में बदल कर नए तरीके से गढ़ा जा रहा है।असल में नरेंद्र मोदी बेशक देश और विदेश में महात्मा गांधी का गुणगान करें लेकिन उनकी सरकार से जुड़े अधिकांश समर्थकों,मंत्रियों,नेताओं के सोच का बापू के पवित्र विचारों से मुठभेड़ होना बेहद लाज़िमी है।क्योंकि,महात्मा गांधी ने जब से भारतीय राजनीत में प्रवेश किया तब ही से हिंदुत्व की राष्ट्रवादी राजनीति और कांग्रेस के अभिजातीय वर्ग को उनसे कड़ी चुनौती मिली है।बापू ने यूरोपीय राष्ट्रवाद की शहरी और अर्ध शहरी लोकप्रियता को तोड़ते हुए देश के दिल देहातों में दस्तक दी थी।

अपने एजेंडा की रूपरेखा पेश करते हुए उन्होंने पहली दफ़ा ही कांग्रेस अधिवेशन में अपना भाषण देते वक़्त डंके की चोट पर कांग्रेस के राजनैतिक आंदोलन को दिल्ली और मुंबई की शहरी राजनीति बताकर संगठन की किरकिरी कर दी थी। इस गांधी से शुरू-शुरू में कांग्रेस के अभिजातीय तबके तक को चुनौती पेश आई थी पर गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़ने के सिवा कांग्रेस के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था।दूसरी तरफ़ अपने दौर के उफ़ान पर पहुंचे हिंदू राष्ट्रवाद के अधिकांश नेता भारत की सांस्कृति और सामाजिक विविधिता से कटे हुए थे इसलिए उनके कुम्बे में हड़कंप स्वभाविक था।बापू ने आस्था और धर्म में विश्वास को बनाए रखते हुए जिस सेकुलर भारत के ताने बाने को बुनना शुरू किया था उसमें वर्चस्व का तत्व मौजूद नहीं था। संघ परिवार के कारकुन अक्सर गांधी की हत्या को 'वध' कहते हैं और विश्व की मानवता के सबसे बड़े ज्योतिपुँज महात्मा गांधी की हत्या पर शौर्य दिवस तक मनाते हैं।गोडसे को राष्ट्रभक्त साबित करने के लिए अपने फॉर्मूला पर अमल करते हुए साज़िशन इतिहास को मनचाहे तरीके से पेश करने में अचूक राष्ट्रवादियों की बिग्रेड उन्हीं पर विभाजन की तोहमत मड़ती है।जबकि,हक़ीकत यह है कि गोडसे ने जो किया वो राष्ट्रप्रेम नहीं हिंदुत्ववाद की राष्ट्रवादी राजनीत थी जिसे गांधी से भय लगता था। 


 नाथूराम गोडसे और महात्मा गांधी

इतिहास गवाह है कि गांधी ने बंटवारे को रोकने के लिए हर मुमकिन प्रयास किया।बापू ने भारत के आखिरी वायसरॉय,नेहरू,जिन्ना तक को साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया था कि मुल्क का बंटवारा मेरी लाश से हो कर गुज़रेगा।यहीं से बापू हाशिये पर धकेल दिये गए क्योंकि साम्राज्यवादी ताक़ते अपने दांव पहले ही चल चुकी थी।फिर भी बापू ने जनवादी कामकाज को जारी रखते हुए दंगों की आग से झुलसते मुल्क को मरहम लगाने का काम किया।दिल्ली में दंगों की आग इतनी भयावह थी कि 'आधी रात को आज़ादी' पुस्तक के मुताबिक नेहरू और पटेल ने लुईस माउंटबेटन के आगे स्थिति काबू करने में असमर्थता जता दी थी।मगर साबरमती के लाल ने तमाम माहौल बिगाड़ने वाले संगठनों(पुस्तक के मुताबिक इसमें आरएसएस भी शामिल रहा) को क़ाबू में करते हुए ऐसा सौहार्द बनाया कि दिल्ली की जामा मस्जिद में क़ौमी एकता का नज़ारा उस वक्त कईयों को चौंकाता था।फिर भी राष्ट्रवाद की अफीम बेच रही ब्रिगेड बापू की छवि को इस क़दर धूमिल करने में कामयाब हो जाए कि बच्चा-बच्चा 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' बोलें तो इससे बड़ी विडंबना क्या होगी।आज का राष्ट्रवाद भी भीतर से पूरी तरह खोखला है जब ही ये जंल,जंगल,ज़मीन की बात करने से कतराता है,कश्मीर की समस्याओं पर बात करने से हिचकता है,नक्सवाद जैसी समस्या का राष्ट्रवादी द्ष्टिकोण से विश्लेषण कर उसका सरलीकरण करता है।इस देश की सांस्कृतिक,सामाजिक विविधिता की बुनावट का सूत्रीकरण हिंदू राष्ट्र के रूप में करने की नासमझी करता है।इसलिए,ताउम्र विशाल भारत की विविधिता को नज़दीक से समझने वाले बापू से इस राष्ट्रवाद को भय लगता है। बहरहाल,नरेंद्र मोदी और अब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह खुद बदज़ुबानी के इस सिलसिले को थामने का प्रयास करते नज़र आ रहे हैं,क्या वाकई वह ऐसा कर पाएंगे ? उम्मीद तो नगण्य है लेकिन उनकी पहल को देर आयद दुरूस्त आयद के तौर पर देखा जा सकता है।आगे क्या-क्या होता है देखना दिलचस्प रहेगा।

Saturday 29 March 2014

अलग-अलग चेहरे,अलग-अलग धर्म।। राजनीति का आधार भी अलग ?


आखिर ये इमरान मसूद कौन है जिसने बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर ज़हरीलेबाण छोड़े।मसूद ने मोदी को जान से मारने तक की धमकी दे डाली। सवाल है कि हिंसात्मक भाषा की राजनीति के जरिये अपने वोट बैंक के वृक्ष को बड़ा करने का औज़ार इसे किसने दिया ? क्या,आप समझते हैं कि एक राजनेता भावनाओं का पुतला है और यूं ही भावनाओं में बहकर कुछ भी कह सकता है ? नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।दरअसल,इनके हरेक कदम के पीछे वोट बैंक की खेती का मुकम्मल इंतज़ाम होता है।भारतीय राजनीति मे धार्मिक ध्रुविकरण कोई नई बात नहीं है।ना ही इमरान साम्प्रदायिक राजनीति का एक नया नवेला चेहरा है।इसकी शुरूआत तो इमरान के जन्म लेने से पहले ही हो चुकी थी।हां,इस राजनीति में इमरान एक कड़ी भर है।ज़रा खुदके दिल से सवाल पूछिएगा क्यों इमरान को इस वक्त मोदी पर ही इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करना मुफ़ीद लगा ? क्या सिर्फ़ इसलिए कि मोदी आज देश में एक बेहद लोकप्रिय नेता है (?) नहीं,दरअसल ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मोदी उसी कट्टरवादी राजनीति का प्रतीक है जिस राजनीति को औज़ार बनाकर मसूद सरीखे नेता अपनी राजनीति के भविष्य का पुख़्ता आधार बनाना चाहते हैं।बेशक,दोनों अलग-अलग धर्मों की कट्टर राजनीति के झंडाबरदार बनने का अभिनय करते हो। अभिनय इसलिए क्योंकि, बदलती परिस्थितियों के मुताबिक रथ यात्रा निकालने वाले आडवाणी नीतीश कुमार के लिए धर्मनिरपेक्ष बन जाते हैं।कभी एनडीए में शामिल रहें नीतीश सार्वजनिक मंच पर मोदी की शान में कसीदे पढ़ते नहीं थकते तो वहीं नीतीश मोदी को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताने से गुरेज नहीं करते।और चाहते हैं कि इस खतरे से देश को बचाने के सबसे बड़े नायक के तौर पर उन्हें देखा-समझा जाए।

बदलती परिस्थिति के ही मुताबिक गुजरात दंगों के बाद अपने-अपने आशियाने से उजड़े समुदाय की मौजूदा वास्तविक स्थिति पर मोदी समावेशी विकास का भद्दा मज़ाक करने लगते हैं।देवालय से पहले शौचालय की बात करने लगते हैं।लेकिन,चाहें कितना भी मुखौटा ओढ़ लीजिये आपका मूल ज़ाहिर हो ही जाता है।जब ही खुदकी उदार छवि गढ़ने के खेल में जुटे आडवाणी संघ-भाजपा को समावेशी राजनीति की नसीहतें दे डालते हैं।
लेकिन, जैसे ही आडवाणी मोदी के हिंदुत्व पोस्टर के आगे अपने हिंदुत्व पोस्टर को छोटा पड़ते देखते हैं ठीक तब ही खुदकी पुरानी ज़मीन खिसकने के ग़म में बाबरी पर की गई कार्रवाई पर उन्हें गर्व महसूस होने लगता है।वहीं, गुजरात से निकले मोदी किसी विदेशी पत्रकार को इंटरव्यू देते हैं। इंटरव्यू में सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया जाता है।इस भाषा के जरिये मोदी दंगों के दौरान हुए कत्लेआम पर बड़ी चतुराई से सहानुभूति जताते हैं।वो चतुराई से समझ की एक ऐसी लकीर खींच देते हैं जिसके मायने हरेक शख्स अपने अपने हिसाब से निकाल सकता है।आप चाहें इसे उनका अचानक हुआ ह्द्य परिवर्तन समझिये या फिर दंगों में मारे गए बेकसूरों का उपहास।(कार के नीचे वाला बयान)

क्या वाकई इन अलग-अलग चेहरों की राजनीति  का आधार स्तंभ भी भिन्न-भिन्न रहा है ? 
ऐसा नहीं है कि इंटरव्यू में कही गई मोदी की बात को यूं ही चतुराई का खेल समझा गया।इससे पहले गुजरात में कई दफ़ा वो इस तरह के भाषण देते रहे हैं।हां,अब गुजरात से बाहर निकलकर देश की सत्ता पर काबिज होने की राह पर चल निकले हैं तो हमले गुजरात में दिये जाते रहे भाषणों जितने स्पष्ट नहीं होंगे।भाषण हमारे दो उनके पचीस सरीखे नहीं होंगे।एन दंगों के बाद क्रिया के बदले प्रतिक्रिया हुई जैसे संकेत भी नहीं होंगे।हां,अपनी ज़मीन के मूल आधार का ख्याल रखा जाएगा।वहीं,मोदी को चाहने वाला (एक) बड़ा उन्मादी मानसिकता रखने वाला तबका अपने नेता की रैली के दौरान तख्त पर ये नारा लिये दिख जाएगा- लाल किले के चक्कर में राम को भूल न जाना।ये तबका संघ के अखंड भारत की परिकल्पना पर फूले नहीं समाएगा।उसे अपनी आँखों के बंद होने से पहले पाकिस्तान को सार्वजनिक तौर पर ललकारने वाले अपने प्रिय नेता को उसे दो टूक जवाब देते देखना है।बांग्लादेश और पाकिस्तान को जबरन भारत में मिलाना है।मुल्क के मानचित्र पर भगवा रंग रंगना है।मोदी के स्कूल संघ को भी बॉलीवुड में मुस्लिम चेहरों की बादशाहत पर दाऊद का हाथ दिखता है।इसे साज़िश बतलाकर नाकाम करने के लिए उसे आह्वान करना ही करना है कि राकेश के बेटे को आगे करो।(संघ के मुखपत्र में)

मुसलमानों के सबसे बड़े दमदर्द होने का दावा करने वाले मुलायम उत्तर प्रदेश सरकार के छोटे से कार्यकाल में सौ से ज्यादा दंगों पर इस्तीफा नहीं लेंगे।लेकिन,गुजरात दंगों का विलाप करते अक्सर दिख जाएंगे।अपनी-अपनी छाती का दम भरने वाले ये नेता समाज के बीच दरार पैदा करके अंतत:अपनी राजनीति के एक किनारे पर एक ही हो जाते हैं। इन्हीं सब बातों के बीच मसूद जैसे शख्स को भी अपनी रोटियां सेंकनी हैं।इन कट्टरपंथियों की अवसरवाद के सिवा दूसरी कोई कौम नहीं है।एक दूसरे से उर्जा लेकर आमजन से जुड़े मुद्दों के बगैर राजनीति करना इन्हें आसान लगता है।न कोई ख़ास जद्दोजहद,संघर्ष बस नारों,आह्वानों,बेगुनाह कार्यकर्ताओं और आम लोगों की लाशों के बीच गिद्ध अपना पेट भर लेते हैं।

Tuesday 28 January 2014

व्यक्ति की जय-जय,व्यक्तित्व की क्षय-क्षय ।



पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका ने अपने प्रकाशमान ज्योतिपुंज 'नेलसन मंडेला' को खो दिया । अन्याय के खिलाफ़ लामबंद होने वाले मंडेला का जाना स्वभाविक तौर पर विश्व के लिए क्षति है।इस क्षति पर दुनियाभर के नेताओं ने शौक़ प्रकट किया । हाल में गांधीजी की पुण्यतीथि पर उन्हें याद किया।लेकिन,सवाल ये है कि शौक़ाकुल नेताओं-आम जनमानस ने मंडेला और गांधी जैसे महापुरूषों से क्या सीख ली ? क्या महात्मा गांधी के गुज़र जाने से लेकर आज मंडेला तक हमारे दोहरे चरित्र अख्तियार करने के रवैये में कोई ख़ास अंतर आया ? कभी-कभी यह देखकर मन आक्रोशित हो जाता है कि काले रंग को बतौर कालीख किसी का अपमान करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले भी शौक़ जता कर अपनी नौटंकी करने से बाज़ नहीं आते । नस्लभेद के खिलाफ़ विरोध का प्रतीक बने नेलसन को श्रद्धांजलि अर्पित करने में कुछ ग़लत नहीं है पर क्या ऐसा करते वक़्त हम अपनी कारगुज़ारियों पर आत्ममंथन करते हैं ? जब इन्हीं सब बातों के बारे में सोच रहा था तब ही एक अजीब घटना से रू-ब-रू हुआ । साकेत मेट्रो स्टेशन पर जैसे ही शेयरिंग ऑटो में बैठा तो देखा कि किसी अफ्रीकी के आने पर साथ बैठी सवारियां नाक-भौं सिकोड़ने लगी । अपनी ही जैसी रंगभेदी मानसिकता को समझते हुए ऑटो चालक ने भी उस काले अफ्रीकी को पर्याप्त जगह न होने का बहाना बनाकर हाथ जोड़ दिए । इतना ही नहीं इससे ज्यादा ख़तरनाक घटना कुछ महीनों पहले दिल्ली के खानपुर में मौजूद दुग्गल कॉलोनी में हुई । एक बच्चे के गायब हो जाने के बाद कुछ शुरूआती पूर्वग्रहों के आधार पर समझा गया कि बच्चे को अफ्रीकी उठा ले गए । इस घटना के बाद अफ़वाह आग की तरह वारदात की जगह के आसपास वाले इलाकों में फैल गई और कुछ दबंग किस्म के स्थानीय लोगों ने इलाके के तमाम अफ्रीकियों को चुन-चुनकर घर से निकालकर उन पर हमले करना शुरू किया । जब मामला ख़तरनाक झड़पों में तब्दील होने लगा तब पुलिस ने नियंत्रण करना शुरू किया । कुछ वक़्त बाद पता चला कि पास ही के इलाके में रहने वाला एक स्थानीय शराबी बच्चे को नशे में उठाकर ले गया था ।  फिर हाल में बदलाव की वाहक बनी आम आदमी पार्टी का अपने मंत्री सोमनाथ भारती के मामले में बचाव करना बेहद निंदनीय है । मुमकिन है,जैसा सोमनाथ बता रहे थे वैसा कुछ हो भी रहा हो जिससे स्थानीय लोग कम से कम उनके समर्थन में हैं। लेकिन, यह नाकाबिले यक़ीन लगता है कि आम आदमी पार्टी में शामिल योगेंद्र यादव,अरविंद केजरीवाल समेत अन्य नेताओं को यह समझ नहीं आया कि इस कार्रवाई की मंशा चाहे नेक रही हो लेकिन इससे जो संदेश आवाम में गया वो ग़लत था। एक आदर्शजनप्रतिनिधि होने के नाते सोमनाथ को इस मुआमले में अतिरिक्त सतर्कतता बरतनी चाहिए थी ।


यह तो ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें साफ़ तौर पर देखा और समझा जा सकता है लेकिन मानसिक तौर पर रंग,लिंग,नस्ल,जाति,धर्म के आधार पर बरते जाने वाले भेदभाव का क्या । किसी सुंदर गोरी लड़की के ज्यादा विवेक सम्मत,बौद्धिक होने पर हैरानी जताना और सांवली लड़की के ऐसे ही विवेक को सामान्य समझना इसी मानसिक विकृति की एक कड़ी भर है । यहां समझा जाता है कि गोरी लड़की मॉडलिंग में ही माहिर हो सकती हैं जबकि सांवली-काली लड़की सुंदर नहीं होती । शर्मनाक बात ये कि रंग,लिंग,नस्ल,जाति,धर्म के आधार पर नफ़रत और भेदभाव का सिलसिला उस भारत में ही इतना लंबा और विस्तृत है जो महात्मा गांधी को अपना राष्ट्रपिता मानता हैं और कहा जाता है कि गांधी ही नेलसन की प्रेरणा थे । हम अक्सर तंज कसते हुए महात्मा गांधी को मजबूरी का नाम बतला देते हैं । जबकि, सच्चाई तो ये है कि वो मजबूरी नहीं मजबूती का नाम थे । उनकी कथनी और करनी में कभी अंतर नहीं रहा । मुल्क के ऐसे हालात देखकर निश्चित ही गांधी भी बेहद निराश होते होंगे । जिस गांधी ने धर्म के नाम पर हो रहें दंगों पर अद्भूत और असधारण तरीके से क़ाबू पाने में कामयाबी हासिल की और धार्मिक सद्भाव का ऐसा माहौल बनाया कि मुसलमानों के त्योहार पर मस्जिद के बाहर हिंदू उनका स्वागत करते । उसी के देश में मंदिर-मस्जिद के नाम पर इंसान-इंसान के खून का प्यासा हो उठा । जिस कांग्रेस को गांधी ने अपने खून-पसीने से सींचा उसी के रहते दिल्ली में प्रधानमंत्री की हत्या करने वाले उनके अंगरक्षकों की वज़ह से पूरी की पूरी कौम को निशाना बनाया गया । जिस राज्य में उनका जन्म हुआ था नफ़रतों की आग ने 2002 में उस गुजरात को भी नहीं बख़्शा और यहां भी धर्म के आधार पर भयानक नरसंहार हुआ । फिर हाल ही में दंगों की आग से आज़ादी के बाद से महफूज रहने वाले मुजफ्फरनगर के दंगे तो नफ़रतों की एक और कड़ी  है जिसमें कुछ लोगों के निजी विवाद को शातिराना तरीके से धार्मिक रंग दे दिया । धार्मिक आधार पर विभाजन की त्रासदी ये कि हिंदू-मुसलमान को और मुसलमान हिंदू को किराये पर मकान नहीं देते । एक को लंबी दाढ़ी खलती है तो दूसरे को तिलक । मालूम नहीं हम कब नेलसन मंडेला और गांधी सरीखे महान पुरूषों की  तस्वीरों को पूँजने की जगह उनके सिद्धांतों-आदर्शों को जीने की भी कोशिश करेंगे । 

Tuesday 19 November 2013

संगठन बनाम सरकार (भाग-2)


इस तकरार का सिलसिला वैचारिक मतभेद तक ही नहीं बल्कि उससें भी आगे भीतरी क्षेय-मात तक जा पहुंचता है  -


इन सब पैंतरेबाज़ियों के बाद पीएमओ में एक ऐसे आईएएस अफसर की नियुक्ती हुई जो गांधी परिवार के बेहद करीबी और अज़िज हैं |उत्तर प्रदेश काडर के आईएएस पुलक चटर्जी को प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रधानसचिव नियुक्त किया गया | पुलक चटर्जी उत्तर प्रदेश के रायबरेली में भी तैनात रह चुके हैं| चटर्जी सोनिया गांधी के स्पेशल ड्यूटी अधिकारी के रूप में भी काम कर चुके हैं | इतना ही नहीं,वे राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए भी काम कर चुके हैं | इनसे पहले या कहे सीधा मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के समय से ही (2004)टीके नायर प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रधानसचिव कार्यरत रहे हैं |अब वह बतौर पीएम के सलाहकार कार्यरत हैं | बहराल,माना जाता है कि माना जाता है कि इस वक्त पुलक पीएमओ के जरिए राहुल के लिए रोडमैप बनाने में जुटे हैं |कई हालिया प्रकरण तो इसी बात की तस्दीक करते हैं कि कांग्रेस गांधी परिवार के लाडले को देश का प्रधानमंत्री बनते देखना चाहती हैं लेकिन पार्टी के भीतर कई तरह के सवाल ऐसा करने से उसे रोके हुए हैं|हाल में गुजरात के मुख्यमंत्री और बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कहीं न कहीं कांग्रेसी खेमे में सीधा खुलकर राहुल को प्रोजेक्ट करवाने में एक खेमे के लिए बाधा बनी हुई है| इस खेमे की राय में राहुल को आगे करके भी पार्टी ने मुंह की खाई तो उनके राजनीतिक भविष्य पर विराम लग जाएगा और कांग्रेसी इस बात को भलि-भांति जानते है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का भविष्य क्या है | हालांकि,कांग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट में जिस तरह से प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के साथ में उनकी तसवीर आती है उससे तो यहीं लगता है कि राहुल को लेकर पार्टी के भीतर माहौल पूरी तरह से बनने के कगार पर है|अब सारा खेल बस इस बात पर आ कर अटक जाता है कि किस तरह से मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुई लानत-मलामत से बचा जाए और बाहर यह संदेश दिया जाए कि राहुल के नेतृत्व में सरकार यूपीए-1 और यूपीए-2 से बेहतर काम करेगी |उसी कवायद के तहत राहुल सरकार की शिक्षा,भूमि,अकाश,अध्यादेश सरीखी नीतियों और फैसलों पर विरोधी स्वर अख्तियार करने नज़र आते हैं | जयपुर चिंतन शिविर को हुए ज्यादा समय नहीं गुज़रा जहां कांग्रेसियों की भाषा का मजमून राहुल को सिंहासन पर बैठाया जाने तक सीमित था | इसी चिंतन शिविर में प्रधानमंत्री के आगमन पर इतना उत्साह नहीं दिखा जितना राहुल के आने पर दिखा |हालांकि,प्रधानमंत्री अक्सर अपने तीसरे कार्यकाल को लेकर पूछे गए सवाल से बचते रहे थे लेकिन पिछले कुछ समय से वो राहुल को आगे बढ़ाने की वकालत करते नज़र आ रहे हैं | जैसे, 7 सितम्बर को सैंट पीटर्सबर्ग में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन से वापस स्वदेश लौटकर उन्होंने कहा था कि राहुल पीएम पद के आदर्श व्यक्तित्व हैं|उनके नेतृत्व में काम करके उन्हें अच्छा लगेगा | दरअसल यह बयान मनमोहन सिंह की ओर से गांधी परिवार के प्रति भक्ति –भाव को महज़ ऊपरी तौर पर दिखाता है लेकिन राजनीति में कालीन से ज्यादा कालीन के नीचे छुपी धूल का महत्व होता है|गौर करने पर मालूम चलेगा कि मनमोहन सिंह ये भक्ति भाव ऐसे समय दिखा रहे थे जब खुद राहुल पार्टी और सरकार में कई मर्तबा पीएम पद की दावेदारी को लेकर बात न करने की नसीहतें दे चुके थे|राहुल के रणनीतिकार उन्हें धीरे-धीरे पर्दे पर लाने के पक्ष में हैं | इसके पीछे उनका मत एकदम से राहुल को प्रोजेक्ट करके आम चुनावों से पहले गुब्बारे में सुई चुबाकर उसे फुस करने से बचाना है | मसलन,वह जानते है कि आज जनता के मिजाज़ की लहर कांग्रेस और सरकार विरोधी ही चल रहीं है और राहुल फिलहाल वो करिश्माई ताक़त नहीं रखते जिससे वो इसका रूख दूसरी तरफ़ मोड़ सकें |इसलिए कांग्रेस,मनमोहन के  बाद खाली होने वाली जगह और विपक्ष द्वारा साम्प्रदायिकता से बचाने के लिए एक कारगर हथियार के रूप में उनको धीरे-धीरे पर्दे पर पेश करेगी|जिससें राहुल गांधी की जनता के बीच बनी पप्पू छवि को बदला जा सकें|